Friday, April 5, 2013

महावीर प्रसाद मधुप जी का जीवन परिचय

न हो बरसात ही जिसमें,वो सावन का महीना क्या ?
रहे परतंत्र होकर तो सुधा की घूँट पीना क्या ?
असंख्यो ही जनमते और मरते हैं यहाँ यूँ तो,
न जिसको जान पाए जग वो मरना और जीना क्या ?"

इस नश्वर जगत में मानव एक यायावर की भांति आता है और अपनी यात्रा पूर्ण कर विस्म्रतियों के बियाबान में
विलुप्त हो जाता है | लेकिन कुछ युगपुरुष ऐसे होते है, जो अपने विशिष्ट गुणों के कारण  जनमानस में अपनी अमिट छाप छोड़ जाते  है और लम्बे समय तक याद  किये जाते हैं | ऐसे ही एक महापुरुष थे श्री महावीर प्रसाद    ' मधुप ' 
आपका जन्म हरियाणा प्रदेश के एक विख्यात नगर भिवानी में 23 जून  सन् 1928 को श्री पालूराम के घर हुआ  | पिता का गोटा किनारी का साधारण सा व्यापार था | बचपन के कुछ वर्ष लाड प्यार में बीत गए और इसके बाद आप शिक्षा के लिए विघालय जाने लगे | मात्र पाँच -छह  वर्ष की आयु में ही आप अपने पिता के साथ बैठकर रामचरितमानस का पाठ करने लगे थे | पिता की अस्वस्थता के कारण कक्षा 6 -7 के बाद विघालय जाना छूट गया | लेकिन पढने की इच्छा और लगन बराबर मन में बनी रही | एक अध्यापक थे , श्री मातुराम शर्मा ; जिनकी चर्चा प्राय: आप अपनी बातों में किया करते, इनसे आपने हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, और महाजनी बड़ी लगन और परिश्रम से सीखी |  
सांस्कृतिक कार्यों में आपकी रूचि आरंभ से ही थी | आपकी  आय कुल 14 वर्ष की रही होगी, भिवानी में लिबर्टी सिनेमा हॉल में कुछ धार्मिक नाटक खेले गए, जिनमें आपने कृष्ण की महत्वपूर्ण भूमिका अदा की | सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेते-लेते-कविता में रूचि पैदा हुई  | मात्र 15 वर्ष की आयु में आपने अपनी पहली रचना लिखी  एक समस्या - पूर्ति के रूप में  |समस्या थी - 'फिर नहीं फेरे इसे आपने इस तरह निभाया -

"ईश हियो मम धाम तेरो तहँ, आन बसे हैं अनेक लुटेरे | 
तीक्षण तानकमान रहे खल, सेन समेत खड़े मोहे घेरे ||
डाट दिखावत हैं  सब ही अरु घात चलावत नैन तरेरे |
आय तुरंत सहाय करो प्रभु, ठाढ़े हैं दुष्ट फिरे नहीं फेरे || "

प्रारंभ में हरियाणवी भाषा के प्रसद्धि कवि श्री बद्री सिंह ' विशाल ' को अपने गुरु माना और यह रचना उन्ही को समर्पित की | बाद में हिंदी के प्रसद्धि  कवि श्री सनेही जी के साथी श्री लक्ष्मीनारायण शर्मा ' कृपाण ' जो सीतापुर कॉलेज में प्राध्यापक थे, को गुरु बनाया | श्री कृपाण जी छंद रचना मेंएक विशिष्ट स्थान रखते थे | गुरु के लेखन व शैली का प्रभाव शिष्य के लेखन व रचनाओं पर भी ख़ूब पड़ा और अंत तक रहा | तभी आपको उपनाम मिला    ' मधुप ' हो गए |
15 वर्ष की अल्पायु में ही पिता का निधन हो गया | उसके एक वर्ष  पश्चाता  ही विवाह के बंधन में बांध दिए गए | जीवनसाथी के रूप में मिली श्रीमती शर्बती देवी |दया, ममता, त्याग, और सहनशीलता की साक्षत प्रतिमूर्ति  | जिनके साथ जीवन की दुर्गम राहें भी सहजता से पार हो गईं |
छोटी सी आयु में ही परिवार के भरण -पोषण का भार, व्यापार की देखभाल का दायित्व, साधनों का नितांत अभाव और सर्वथा प्रतिकूल परिस्तिथियाँ ; ऐसे विपरीत वातावरण में माँ सरस्वती की आराधना  व काव्य-रचना बहुत ही दुष्कर कार्य था, लेकिन सच्ची लगन, कड़ी मेहनत व इच्छा-शक्ति के रहते कोई बाधा आपका रास्ता नहीं रोक सकी | रात-रात भर जागकर आप लालटेन के मद्धम प्रकाश में भी साहित्य-सेवा में तल्लीन रहते | अपने - अपने एक छंद में लिखा है -


"नीरव निशा में जब सोता सुख नींद जग 
बैठा कवि सारी रात कलि कर देता है |
सिंचित स्वरक्त से बनाता कल्पना का कुंज,
शुष्क मरू में भी हरियाली कर देता है ||
लेता किसी से न कुछ, देता दुसरों को सदा,
मुक्तक लुटाता कोष खाली कर देता है |
अमित दुखों को दुलराता गीत गाता हुआ,
सृष्टी को सरल मतवाली कर देता है || "

कई बार ये सोच कर और देख कर एक सुखद आश्चर्य की अनुभूति होती है कि कम शिक्षित होने पर भी कैसे  आपने साहित्यकारों, कवि समाज और विद्वानों के मध्य अपना सम्मानजनक स्थान बनाया | ये या तो कोई पूर्वजन्म के संस्कार हैं या ईश्वर का दिया वरदान | इस पर आपने स्वयं लिखा है -

है न बुद्धि, बुद्धिमानों  की मगर  ममता मया है,
है न विघा स्नेह विव्द्दवर्ग का पूर्णतया है  |
हूँ निबल, निर्धन; धनी, बलवान झुकते सामने आ,
हूँ स्वयं हैरान, ये सब उस दयामय की दया है || "

आप सनातन कुल में जन्म लेने पर भी सभी धर्मों को पूरा सम्मान देते थे और सभी धर्मानुयायियों से आपके मधुर संबंध थे | स्वभाव से एकदम विन्रम व संतोषी, न धन की लालसा और न ही प्रसिद्धी पाने के इच्छा | साहित्य साधना व काव्य रचना करते थे केवल स्वान्तः सुखाय |
संगीत का प्रभाव इन्सान के जीवन पर बहुत अधिक पड़ता है, बचपन से ही आपको साथ मिला श्री बंशीधर शर्मा ' सरोज ' जैसे लौहपुरुष का जो आपके गुरुभाई भी हैं व कविमित्र भी |
आपके जीवनकाल में आपके शिष्य हुए, लेकिन इनमें सबसे अधिक योग्य व प्रिय जिनको आप मानते थे, वे हैं डॉ. सारस्वत मोहन ' मनीषी ' जो आजकल रामलाल आनंद कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हुए | 
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रूचि के चलते आपने अनेक वर्षों तक रामलीला मंचन में अपना विशिष्ट योगदान दिया | भिवानी नगर में अनेक बार कवि सम्मेलनों का आयोजन करवाया तथा संयोजन भी किया |
काव्य के प्रति आपका ऐसा अनुराग था की जीवन के अंतिम समय तक रुग्णता की अवस्था में भी आप कविता पढने-सुनने में ही समय व्यतीत करते थे और अंत में 19 अक्टूबर 2002 की आप इस नश्वर जगत को छोड़ कर प्रभु के चरणों में लीन हो गए |


क्षणभंगुर जीवन है, न सदा रहती है बहारे - जवानी यहाँ,
यह रूप की चांदनी दो दिन है, हर चीज है नश्वर - फानी यहाँ |
जनमे जितने भी गए जग से, बच पाया न एक भी प्रानी यहाँ |
कहने के लिए कुछ रोज को ही रह जाती किसी की कहानी यहाँ |

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